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Sunday, February 7, 2016

जिस्म कभी शास्वत नहीं होता

तुम्हारे हाथ
जिस्म के धागे
तेज़ी से उतार फेंकेंगे...

अनावृत जिस्म को देख,
तपिश से थरथराते तुम्हारे
होंठ बेतहाशा चूमेंगे जिस्म का
पोर-पोर...

हर एक उभार पर
तुम कस कर पीड़ा
बहने दोगे...

आवेग में झुलसते
तैरते..
थक कर...चूर हो
तुम मुह फेर...
करवट ले तब सो जाओगे...


तुम्हे सोते देख..
जगे जगे सोचूंगी मैं...
क्या सपने में मेरे जिस्म
की मोहन जोदाड़ो की
कलाकृति दिखती है तुम्हे??
क्या तुम उससे प्रेम से सहलाते हो ??
क्या तुम उसे सेहराते हो ??

बेसिरपैर के सोच से घिरी मैं...
तुम्हारे लिजलिजे हाथो से छुए
अपने जिस्म को धोउंगी फिर...

तुम्हारी कामुकता मेरे जिस्म के
पोर पोर भले ही नोच डाले
रोज़ रोज़...

मेरे आत्मा के बंधे धागे
कभी नहीं खोल पाएंगे...
जिस्म कभी शास्वत नहीं होता...

दिव्या....