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Wednesday, May 14, 2014

Gulmohar bulata hai....

Gulmohar bulata hai mujhe apne paas...

Sapno me tera chehra nahi
Na raat surmayi,din sunehara nahi
Chand baton se dil nahi judte
Satahi rishta hai koi gehra nahi
Rishte Seenchne ka na raha koi prayaas

Gulmohar bulata hai mujhe apne paas..

Apni duniya ka sagar samhal lo
Kinaro se kashtiyaan nikal lo
Sahara le ke sagar paar mat jao
Kharepan ko hatao sagar ubaal lo
Ladi ladi tod do na rehne do koi aas..

Gulmohar bulata hai mujhe apne paas

Sunday, March 2, 2014

फाल्गुन

पुलक पुलक नाचे बसंत
मेघ गर्जन में मोर
फाल्गुन लो अब आ गया
हो कर रंग से सराबोर..

धवल धवल से लोग पछतावे
रोये अंजुरी भर भर बैरागी
फाल्गुन की रंगिनिया देख
सोचे काहे दुनिया त्यागी?

गुलाबी गुलाबी सवेरे का फेरा
नीला,पिला,हरा रहा दोपहर
लाल शाम के गुलाली गाल
पूरा दिवस ही रहा मनहर

तरह तरह के पकवान सजे
पीकर मदमस्त हुए सब भंग
जात-पात प्रतिहिंसा को भूल
रंग की तरंग में बहे उमंग

स्मरण स्मरण कर प्रहलाद को
होलिकादहन हुयी पिछली वार
नन्दलाल ओ गोपियों की याद में
होरी खेले भारत बार बार

कोटि कोटि कृतज्ञ हो ऋतू से
निखरता रहे यूँ हर त्यौहार
इनके आवन जावन से सदेव
पल-पल पल्लवित रहे प्यार...

Tuesday, January 28, 2014

जीते-जीते न मर

सुनो.....
खिले नवीन
पुष्प में
दुर्गंध खोजनेवाली...
जुगनू की
खेती में...
अंधेरा बोनेवाली...
हंसते चहकते
टोली में
सिसकती रोनेवाली...
तू चाहे ना चाहे...
सुघनध फेलेगी...
रोशनी उघेगी
हँसी छाएगी...
नदी के छोर...
उल्टी धारा ना देख......
नभ की क्षितिज़ में
केवल टूटा तारा ना देख...
मौत की चाह में जीवन
असहाय ना कर।..
मरते मरते जी ले
जीते-जीते न मर।

Monday, January 27, 2014

एक ही वक़्त

पुरानी घड़ी की
रुकी हुई दोनो
सूइयां..
एक ही वक़्त पर
थी ठहरी..
या तो वक़्त वो...
सबसे अच्छा वक़्त
था...
या सबसे बुरा...
दूर-दूर एक
दिशा में
घूमती सूइयां...
किसी पल अचानक..
एक जगह जाती है
थम..
और फिर...
कुछ क्षणो पश्छात
शने: शने: अलगाव
आता है...
बीच की खाई..
कयी फीट गहरी
हो जाती है...
 नये सिरे से
नयी सूइयां मिलने
की करती है तैयारी...
या तो वो होता है...
सबसे अच्छा वक़्त
या सबसे बुरा वक़्त...


Saturday, January 25, 2014

कलम की जगह अब तलवार उठानी होगी...

स्त्री ओ स्त्री
तुझे रचनाओ मेअपनी सजाया है
सुंदर से...
तेरी अभिलाशाओं कोसबको बतलाया है
सुंदर से...
तेरे हक़ मेंबारबार उठायी है
आवाज़...
कोशिश कर केसर पे पहनाया है
ताज..
परंतु तू रही कमज़ोर..
आँचल तेरी फाड़ गया
वो भक्षक...
शांत स्तब्ध देखते रहे सब
बने रक्षक..
स्त्री ओ स्त्री
तूने क्यू नही उठाया
त्रिशूल
क्यू नही चटा दी उसे
धूल...
क्यू सिसकती है क्यू है
रोती...
निशाचर है, नही है तू
सोती...
स्त्री ओ स्त्री
मेरी भी रही है..
कहीं ना कहीं चूक
कविता के दायरे में
स्वयं ही गयी रुक...
तुझे अब एक और बात
बतानी होगी.
कलम की जगह अब तलवार
उठानी होगी.
कलम की जगह अब तलवार
उठानी  होगी....