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Sunday, April 27, 2008

kya kahain...

aasman ki badh gayi hai aabadi, kya kahain.....
na rahi parindo ko udne ki azaadi,kya kahain

dard aur tanhai yun chalte hai saath hamesha,
jyon dono ki ho gayi ho shaadi,kya kahain

shabd todne lage dam,kalam bhi chalti nahi
panno par maine syahi gira di, kya kahain.....

khwab ab doondhte firte hai ghar mera
jab aankhon ki roshni bhujha di,kya kahain

sapno se haar gayi...

haqeeqat ko maine sapno se lada diya,
aah!sapno ne mujhe hi hara diya

sapno ke bhi pankh ug aaye the
ek-ek sapno ko maine uda diya

khud se koi umeed baki na rahi
sapne aur khud ko nazar se gira diya

marghat hai zindagi,jeena hai,jee lo
saans lene ki mohlat ko'usne' bada diya

Saturday, April 26, 2008

वो दो रिश्ते

वो दो रिश्ते बड़े अनोखे थे

जब कभी मैं सुलगती थी
वाष्प बन उड़ जाते थे दोनों
फिर बरसते थे मुझे
शीतल करने.....

जब कभी मैं ठंड से कांपती थी
सूरज को बुला लाते थे
दुनिया के दुसरे कोने से
मुझे गर्मी प्रदान करने.
.
दो रिश्ते जो अपने थे,
अब सपने है
उफ़ कहाँ गए वो
मुझे तनहा कर......
वक़्त आगे बढ़ गया है
रिश्ते सिमट गए है,
ठहर गए है...
वहीं....मेरी पुरानी डायरी में,
उन मांगी हुई किताबों में,
कार्डों में,कानो की बालियों में,
उन अनगिनत तस्वीरों में,
मेरे कमरे के बिस्तर पर...
जहाँ घंटों हँसते थे
झगड़ते थे,कभी
रोते थे.....

दो रिश्ते अब भी उभरते है
ह्रदय में
टीस के रूप में.
जो उम्र भर रहेंगे
मेरे साथ
एक याद बन कर
एक आह बन कर........

Sunday, April 13, 2008

kasela hai..

कसेला है...
छिन्न-भिन्न
स्वरों में
सुर डालना
फिर-फिर
श्रवण में
आना
बेसुरी स्थिर
आवाज़ .....

कसेला है..
जल को
पूरे वेग से
प्रवाहित करना
ठहरना जल
का ठहरे हुए
पत्थरों के
पीछे...

कसेला है..
क्यारी-क्यारी
कलि को
सहेजना
मुरझाना कलि का
पुष्प होने से
पहले.....

anchuaa sa pyar..

ek anchuaa sa pyar.....
ek andekha....
anchua sa pyar...
chote se chidr me samaya...
hua sa pyar....

raat ke aasman se fisalkar..
oss ki boondien dhaani pattiyon
ko sehla jaati hai...
din se chot khaye,pyaasi pattiyon
ko nehla jaati hai....

pattiyon ka sangharsh..
pattiyon ki pida
bhar leti hai oss ki boondein..
apne andar.....

sirf khamoshiyan baat karti hain unki...
aisa anootha abola sa pyar...
ek andekha..
anchuaa sa pyaar....

bedard intzaar..

bedard sa ye intezaar mujhe saal raha hai,
gend bani hoon waqt ke haathon........
hans hans mujhe uchaal raha hai

quaid karke mere par jisne katar dale,
sabke samne mujh par daane daal raha hai

jalte tave par jaise paani ke do chinte,
waisa tera mera visaal raha hai....

khwab tere hi aankho me aabad rahe,
adhure sapno ki pida,dil ab tak sambhal raha hai..

ruk jaao 'ruby' na jaao us ghar me,
na wo tera maayka,na sasuraal raha hai......

tum aaoge kya...

aaj dil ka haal sunaya hai
tum aaoge kya.....
chand bhi dekh mujhe pachhtaya hai
tum aaoge kya......

resha resha dard tumse baanta hai humne,
ek muddat baad unhe gale lagaya hai
tum aaoge kya.....

un banjar khwabon ki taseer-e-jamaal kya mili
registaan me aaj humne ek phool khilaya hai
tum aaoge kya....

shayad ab wo shab-e-vasl aaye na kabhi
dil ne phir bhi hasraton ka darbaar sajaya hai
tum aaoge kya.....

Friday, April 11, 2008

मेरा प्रतिबिम्ब
लचीला सा
सतही रास्तों में
फैला सा..
कहीं कहीं उजला
कहीं कहीं
मैला सा
स्वयम को दुंड पाने में
लाचार है....

परिस्कृत संसार के आगे
धरासाही
हतासाही
टुकड़े टुकड़े अस्तित्व
को समेटे...
कांच के सपनो को
संग घसीटे...
स्वयम को दुंड पाने में
लाचार है...

असंख्य प्रयत्नों से
सीमा लान्घे...
सत्य असत्य की
चिंता टाँगे...
व्यथा की अधिकता
को मांगे
स्वयम को दुंड पाने में
लाचार है...

Sunday, April 6, 2008

simatta pyaar..

देख ना,
मेरी शामें,रातें तेरे नाम वाली
कहीं सिमट कर खो रहीं हैं
स्मृति से ओझल होती हुई,
किसी भयावह खँडहर में
विलीन हो रही हैं|

ऐसा क्यूँ हैं जबकि,
प्रथम कशक,प्रथम चाह,
प्रथम स्पर्श का एहसास
तो अब तक जागृत है
नया नया सा है
प्रथम कुछ सालों के दिन रात
अनोखे थे,लचीले थे
फिर धीरे धीरे आकांक्षाएं लुप्त
होने लगीं,चाहत का रिसाव होने लगा
दीवारों के घेरे बढ़ते गए
हम दोनों दूर छटते गए
घुटन का धुआं पूरे वजूद
में समाने लगा...
प्यार की जिजीविषा समाप्त थी..!!

लेकिन तब भी,
चक्षुओं के अन्दर पटल पर तुम थे,
तन्हाई के सिसकती रातों में भी तुम थे,
यादों के हर शब्द में अंकित तुम थे,
हर और,हर जगह,हर वक़्त
प्यार विहीन मैं थी,
और मेरे संग अनुपस्तिथि में भी तुम थे|

उसके बाद,
मेरे अंतर में कौन चिल्ला उठा?
मरे हुए जज्बातों को मारने लगा...
मुझे शुन्य की ओर ले जाने लगा...
मैं तो अब शांत हूँ,
घुटन से आज़ाद हो गयी हूँ...!!

kya hoon main..

नित नए सोच से घिरी हुई मैं
धब्बे विहीन कागज़ पर शब्दों
से एक समाज को रचती हूँ मैं....|

तुम्हारे लिए भले ही अग्ह्राय हो,
असहनीय हो,
पर हर एक रचना में
एक आत्मा उपस्थित है
शायद उसी आत्मा से
तुम्हे झंझोरती हूँ मैं....|
दुनिया के समक्ष मैं हृदयविहीं
वेदनाविहीं,भावनाशुन्य इंसान हूँ,
किस दिशा से भावनाओ का सागर,
उद्वेलित कर मुझे,फ़ैल जाता है
अधपके पन्नों पर,
उन पन्नों को फिर देर तक पकाती हूँ मैं....|

असमंजस कहूं या ऊहापोह कहूं
शब्दों के मायने समान हैं पर प्रभाव
अलग अलग,भावानाशुन्य मैं,पन्नों पर
भावनाओं का सागर उडेलती हूँ,
क्या मेरे दो रूप हैं?
हृदय की संप्रेषणता क्या दब जाती है?
या फिर दुनिया की नज़र काली है?

जो भी है,इतना तो तुम मान गए
हँसते हुए कहते हो-'अच्छी भली हो तुम'
सच में,
तुम्हारी आँखों की पुतली में
बैठी हुई मैं,दुनिया के
समक्ष फूल सी खिली हुई हूँ मैं...|

ghutan behad jaruri hai...

बेमक्सद से उठते धुएं में
खुद को क़ैद कर लूंगी
कुछ पल की ही सही
घुटन बेहद जरुरी है....
सांस लेना भी कैसी मजबूरी है....
सबूत देते रहना सबको
खुद के जिंदा होने की...|

जिंदा रहना भी एक मजबूरी है...
तेरे ख्वाहिशों को जिंदा रखने के लिए....
हर साल मेरा एक हिस्सा मर जाता है....
तेरे ख्वाहिशों के दिए जलाते रहने में....
सात साल से तिल तिल मर रही हूँ मैं...
फिर भी जिंदा हूँ,
सांस जो ले रही हूँ मैं....|

अब मैं खुद को
इस घुटन में क़ैद कर लूंगी....
खुद को भरोसा दिलाने के लिए
की मैं जी रही हूँ...|

जुदाई की शामें....

चलों, उन शामों की बातें करें..
जब हम तुम दूर दूर..
तन्हाई या भीड़ में..
घिरे होंगे...
हम होंगे इधर,तुम होंगे वहाँ...

स्मृति की फाटक पर दस्तक देंगी
आज की शामें,जिन शामों
की लालिमा पीलिमा में बिखरे
पड़े हैं हम दोनों के हास्य, रुदन
हाथ थामे विचरते हुए की
अधूरी तस्वीरें,बेसुरे गाने लबों
से फुटते-लजाते हुए,बिन पहचानी
गलियों में पूछ-पूछ कर भटकते नज़ारे
और जाने कितनी ही अनछुई,मिटास भरी यादें
जिनके स्मरण से ही नयन मुस्करा देंगे...
हम दोनों के,भले ही.....
हम होंगे इधर,तुम होंगे वहाँ....

बरस बीतेंगे,फासले होंगे ही होंगे
मिलन की आस,विछोह की विरह
घुल कर सयद नयी भावना का
आविष्कार करें,निज जीवन
के दैनिक कार्यों से निर्व्रित हो
हर शाम वायु के सर्रसर्राहट में,
सूरज के डूबते हुए अक्स में,
निशि के घटते-बढ़ते आकार में,
एक क्षण को भी तेरी महक छू जाए तो
लम्हा-लम्हा प्रकृति के ताल पर
थिरक उठेगा,बाग़-बाग़ डाल-डाल तेरी
अनसुनी आवाज़ से चहक उठेगा,
मेरे ह्रदय के संप्रेषण से
तेरी हर शाम भी खिल उठेगी....
मेरे दोस्त,उस पल भी..
हम होंगे इधर,तुम होंगे वहाँ....

कीट....

बासंती धरा पर उड़ते जाते
अगणित कीट पंख फैलाए
क्या पुष्पों की अभिलाषा है?
या फिरते है यूँही बौराय....

सुनहली,रुपहली सांध्य में
सूक्ष्म जीव का उड़ना देखा
ऋतू का बेला से,बेला का
प्राणी से आत्मीय जुड़ना देखा....

विनाश के सहकारी है यह
कभी है उत्पत्ति के साधन
सुन्दरता के मोहक पुजारी है
वन-उपवन फैला है जीवन...

रंगों की तूलिका से लिपटी
डोलती तितलियाँ प्यारी
रात को जुगनू जब चमके
चमकती तब अवनि सारी...

सादा सरल जीवन है इनका
न है कहीं गुना और भाग
केवल मधु एकत्रित कर लेंगे
या ग्रहण करेंगे सुमन का पराग...

एकता की शक्ति का अगर
लेना हो सत्य ही शिक्षण
पिपीलिका और भ्रमर से
सीखो ये सफल जीवन दर्शन...

समय चक्र पूरा कर अपना
प्रकृति को और देकर निखार
नए कीटों को आगमित कर
यही चक्र चलता है बार-बार..

सूनी आखों की खामोशी...

क्षत विक्षत हो रोती रही
सूनी आखों की खामोशी...

लोहे के रास्तों पर चलते रहे
टोकर लगती रही,हम सम्हलते रहे
मछलियों की तरह तड़पते हुए
बिन पानी के कतरा कतरा गलते रहे
फिर भी ठहरे नहीं....
लेकिन आहत हो रोती रही
सूनी आखों की खामोशी....


स्वाश-स्वाश आशाएं पलती रही
सूखे नग से सरिताएं निकलती रही
मन के आलोकित दीप को मगर
मन की तिमिरता ही निगलती रही
फिर भी हारे नहीं.
इस बार राहत हो रोती रही..
सूनी आखों की खामोशी...

sangarsh...

सुबह खुद को मुख्त्लीफ़
रंगों में डाल लेती हूँ
सफ़ेद चुन्धियाई आँखें
घडी पर टिकी रहती है...
टिक-टिक से धक्-धक्
की रफ़्तार को सुनती हूँ मैं.....

परिचित रास्तों पर दौड़ते पैर...
चीखती आवाजें.....
"ऑटो...रुको.."
शोर में,बहरे हुए लोग...
आवाज़ ही फैलती है दूर तक..
सुननेवाला कौन है????

हर और दिखता है...
अफरा-तफरी का जाल
एक-दुसरे से टकराते लोग...
टकराते वाहन...
उलझते...अपशब्द बोलते...
भटकते इधर-उधर...जैसे
सबको बस चलना है..
चलते ही रहना है...
कोई मंजिल नहीं है...
पसीने से तर बतर
खुद को धकेलते..हुए..
आगे बढ़ना है...आगे बढ़ना है...

उसी में...
मेरा एक बस में चढ़ना...
और कॉलेज पहुँचना
हल्दी घाटी के मैदान में मिली जीत
से कम तो नहीं!!

uss raat.

सन्नाटा उतरा था जेहन में.....
चीख हृदयविदारक थी........
मौत को करीब से देखती
चीख......
"बचाओ.....कोई..ईईईईईइ"
चले गए थे दो चेहरे
अँधेरे की गुफा में..
स्तब्ध,गतिहीन
निस्पंद वहाँ...
दो जन थे...
मैं और एक लाश.....

आज....
चर्चा आम है.
उस रात का...
न्याय के
दावेदार अनेक है
संसद में हंगामा है
लोग बोले जा रहे है...
लाश अब जीवित है!!
मैं ही नहीं बोलती
कुछ भी..
क्यों?????
उस रात मैं भी
एक लाश बन गयी थी....
शायद.........

विडम्बना

अनायास ही याद आया मुझे
आज मेरा जन्मदिन है..
४० का हो गया मैं..
५ दिन बाद.....
गुड्डू भी ३५ की हो जाएगी...

कल देखा था..
गुड्डू के सफ़ेद बालों को
डाई करना भूल गयी थी
अब इंतज़ार की सफेदी दिखने
लगी है!!

नीरस ज़िन्दगी की ऊब
प्रतिदिन निढाल करने लगी है...
पांच दिन की नौकरी
और सप्तांत एक ऐसे
लड़के के खोज में
बिता देना....
जो 'गहरी सांवली' मेरी
बहिन से ब्याह करे!!
१५ सालों से बिना
बाधा के यही क्रम
रोज़-रोज़.....

गुड्डू से मुझे कोई
संवेदना नहीं...
वह सच में एक
'बोझ' है..
जिसे समाज ने
मुझ पर थोपा है..

और यही समाज
ताने कसेगा अगर
'उसे घर में बिठाये'
मैंने शादी की..
क्या विडम्बना है!!

खीझ, घीन,आक्रोश
अन्दर से खाते है
जब भी उन
'वैरी फेयर' पसंद
करने वालो के पास
गिडगिडाना पड़ जाता
है...

उफ्फ्फ़....ये गुड्डू भाग
नहीं सकती किसी के साथ?
१५ साल पहले
गुड्डू भाग गयी होती..
तो.... तो.........
गुड्डू का कत्ल
मैंने ही किया होता!!

ह्म्म आज मेरा जन्मदिन है...
गुड्डू को कहना पड़ेगा
अपने बाल को डाई
कर ले.....

jeevan tu maun hai...

जीवन,तू मौन है
पर मैं सुनती हूँ
तुझे मौत से प्यार नहीं.........

धवल से वस्त्र धारण
कर टहलती है तू
मैं ही तुझ पर
रंगों के छीटें फेंकती
रहती हूँ
गुदगुदाती हूँ.....तब
तू हंसती है खिलखिलाती है,
जैसे सरिता का कल कल निनाद!

जीवन,तुने कितने चेहरे
धारण किये है.....
शायद अनगिनत.....
कुरूप,सुरूप,भयावह
सलोना.......
मैंने कभी तेरे चेहरे
के आकर को चूमा है
कभी दुत्कारा है
कभी लान्क्षित किया है....
पर तू सदेव तटस्थ रही है
न आवेग,ना अवहेलना
वक़्त के साथ तू
बस चलती रहती है,बस चलती रहती है
ठहरती है तू सिर्फ
मौत के गोद में
जिसको तुने कभी
प्यार नहीं किया.....

ek stithi ke do roop...

स्वतः ही मैंने
चार दीवारों से घिरा
कमरा चुना
पंखविहीन मैं...
एक कोने में बैठ
आलोल कलोल से
कटती गयी,बचती गयी
बस इक झरोखा लिए
जिसे सिर्फ मैं देख सकती
थी...

उस वक़्त.....

ठिठुरती देह को बांधें
अस्त व्यस्त
गठरी बन गयी थी...

झरोखे से आकर
धुप-सामने दीवार
पर ठहर कर
प्रेमपूर्ण निमंत्रण
दे,मुझे सहलाती थी..
और मैं.....
आह्लादित हो उसे
गोद में भर लेती थी..
कितना स्नेह
कितना समर्पण...

आज.....

उसी चारदीवारी में
चटाई सी फैली
हुई हूँ...
झरोखे से आती
धुप....
सामने दीवार पर
पैर जमाती
मुझे घूरती है....
बड़ी बड़ी आँखें कर.....

धुप की नोख भर की
चुभन से
मैं तमतमाकर-
अपनी देह समेट लेती
हूँ...
उफ़......
कितनी तपिश...
कितना घृणा......