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Sunday, April 6, 2008

कीट....

बासंती धरा पर उड़ते जाते
अगणित कीट पंख फैलाए
क्या पुष्पों की अभिलाषा है?
या फिरते है यूँही बौराय....

सुनहली,रुपहली सांध्य में
सूक्ष्म जीव का उड़ना देखा
ऋतू का बेला से,बेला का
प्राणी से आत्मीय जुड़ना देखा....

विनाश के सहकारी है यह
कभी है उत्पत्ति के साधन
सुन्दरता के मोहक पुजारी है
वन-उपवन फैला है जीवन...

रंगों की तूलिका से लिपटी
डोलती तितलियाँ प्यारी
रात को जुगनू जब चमके
चमकती तब अवनि सारी...

सादा सरल जीवन है इनका
न है कहीं गुना और भाग
केवल मधु एकत्रित कर लेंगे
या ग्रहण करेंगे सुमन का पराग...

एकता की शक्ति का अगर
लेना हो सत्य ही शिक्षण
पिपीलिका और भ्रमर से
सीखो ये सफल जीवन दर्शन...

समय चक्र पूरा कर अपना
प्रकृति को और देकर निखार
नए कीटों को आगमित कर
यही चक्र चलता है बार-बार..

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