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Friday, April 11, 2008

मेरा प्रतिबिम्ब
लचीला सा
सतही रास्तों में
फैला सा..
कहीं कहीं उजला
कहीं कहीं
मैला सा
स्वयम को दुंड पाने में
लाचार है....

परिस्कृत संसार के आगे
धरासाही
हतासाही
टुकड़े टुकड़े अस्तित्व
को समेटे...
कांच के सपनो को
संग घसीटे...
स्वयम को दुंड पाने में
लाचार है...

असंख्य प्रयत्नों से
सीमा लान्घे...
सत्य असत्य की
चिंता टाँगे...
व्यथा की अधिकता
को मांगे
स्वयम को दुंड पाने में
लाचार है...

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