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Sunday, April 6, 2008

ek stithi ke do roop...

स्वतः ही मैंने
चार दीवारों से घिरा
कमरा चुना
पंखविहीन मैं...
एक कोने में बैठ
आलोल कलोल से
कटती गयी,बचती गयी
बस इक झरोखा लिए
जिसे सिर्फ मैं देख सकती
थी...

उस वक़्त.....

ठिठुरती देह को बांधें
अस्त व्यस्त
गठरी बन गयी थी...

झरोखे से आकर
धुप-सामने दीवार
पर ठहर कर
प्रेमपूर्ण निमंत्रण
दे,मुझे सहलाती थी..
और मैं.....
आह्लादित हो उसे
गोद में भर लेती थी..
कितना स्नेह
कितना समर्पण...

आज.....

उसी चारदीवारी में
चटाई सी फैली
हुई हूँ...
झरोखे से आती
धुप....
सामने दीवार पर
पैर जमाती
मुझे घूरती है....
बड़ी बड़ी आँखें कर.....

धुप की नोख भर की
चुभन से
मैं तमतमाकर-
अपनी देह समेट लेती
हूँ...
उफ़......
कितनी तपिश...
कितना घृणा......

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