क्षत विक्षत हो रोती रही
सूनी आखों की खामोशी...
लोहे के रास्तों पर चलते रहे
टोकर लगती रही,हम सम्हलते रहे
मछलियों की तरह तड़पते हुए
बिन पानी के कतरा कतरा गलते रहे
फिर भी ठहरे नहीं....
लेकिन आहत हो रोती रही
सूनी आखों की खामोशी....
स्वाश-स्वाश आशाएं पलती रही
सूखे नग से सरिताएं निकलती रही
मन के आलोकित दीप को मगर
मन की तिमिरता ही निगलती रही
फिर भी हारे नहीं.
इस बार राहत हो रोती रही..
सूनी आखों की खामोशी...
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