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Sunday, April 6, 2008

sangarsh...

सुबह खुद को मुख्त्लीफ़
रंगों में डाल लेती हूँ
सफ़ेद चुन्धियाई आँखें
घडी पर टिकी रहती है...
टिक-टिक से धक्-धक्
की रफ़्तार को सुनती हूँ मैं.....

परिचित रास्तों पर दौड़ते पैर...
चीखती आवाजें.....
"ऑटो...रुको.."
शोर में,बहरे हुए लोग...
आवाज़ ही फैलती है दूर तक..
सुननेवाला कौन है????

हर और दिखता है...
अफरा-तफरी का जाल
एक-दुसरे से टकराते लोग...
टकराते वाहन...
उलझते...अपशब्द बोलते...
भटकते इधर-उधर...जैसे
सबको बस चलना है..
चलते ही रहना है...
कोई मंजिल नहीं है...
पसीने से तर बतर
खुद को धकेलते..हुए..
आगे बढ़ना है...आगे बढ़ना है...

उसी में...
मेरा एक बस में चढ़ना...
और कॉलेज पहुँचना
हल्दी घाटी के मैदान में मिली जीत
से कम तो नहीं!!

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