स्त्री ओ स्त्री
तुझे रचनाओ मेअपनी सजाया है
सुंदर से...
तेरी अभिलाशाओं कोसबको बतलाया है
सुंदर से...
तेरे हक़ मेंबारबार उठायी है
आवाज़...
कोशिश कर केसर पे पहनाया है
ताज..
परंतु तू रही कमज़ोर..
आँचल तेरी फाड़ गया
वो भक्षक...
शांत स्तब्ध देखते रहे सब
बने रक्षक..
स्त्री ओ स्त्री
तूने क्यू नही उठाया
त्रिशूल
क्यू नही चटा दी उसे
धूल...
क्यू सिसकती है क्यू है
रोती...
निशाचर है, नही है तू
सोती...
स्त्री ओ स्त्री
मेरी भी रही है..
कहीं ना कहीं चूक
कविता के दायरे में
स्वयं ही गयी रुक...
तुझे अब एक और बात
बतानी होगी.
कलम की जगह अब तलवार
उठानी होगी.
कलम की जगह अब तलवार
उठानी होगी....
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