जलती हुई आँखों पर
बर्फ की डली डाली
मैंने...
बड़ी बड़ी आँखें
तेरी डोल्फिन्स
हैं...
उछल के मेरे
सागर की
गहराई
नाप जाती है...
लहर दर लहर
पहचानती है
डोल्फिन्स मुझे...
रात है अभी..
लगा तुम
चाँद हो..
मैं उछल उछल
तुम्हारे करीब
आती हूँ..
बिना कारन
ज्वारभाटा होता नहीं है!!!
कई साल
हमारी राहें
संग थी...
तू भी
मेरे संग थी...
पर..
न प्रेम था..
न स्नेह था
न लगाव
शने:शने रिश्ते
आंच पर
पक रहे थे..
न तुम समझ
सकीं...
न मैं...
अब
ह्रदय में
घुमड़ते अत्यधिक
स्नेह
प्रेम
लगाव
का कोई कारन
बता सकती हो
बोलो??
गिरती हु जब,
ठोकर लगती है..
तुम्हारी हाथों
को खोजती
है ऑंखें..मेरी..
चमक जाती है..
हर बार तुम्हारे
हाथों को
पा के..
तुम्हारी डोल्फिन्स
भी..
मुझे ही खोजती है..
जब भी
दर्द में होती है...
इस बार..
एक पल के लिए
खो गयी मैं..
उसी पल
डोल्फिन्स
मुझे पुकार रही थीं...
अभी..
जलने लगी है..
बर्फ की डली
डाली
है मैंने...
बर्फ पिघला है...
सागर में मिला
है मेरे....
मेरी डोल्फिन्स
उछल
रहीं है....
Saturday, November 21, 2009
Sunday, November 8, 2009
स्वीकृति
संभव नहीं है...
मेरे लीये..
तुम्हारे दोनों हाथ
थाम के कह पाना..
"मैंने तुम्हे स्वीकार
किया".....
चश्मे के अन्दर
झांकती आँखें तुम्हारी..
देखती है मुझे..
प्रकट होती है...
तुम्हे....मेरी
स्वीकृति!!!!
अधिकांश..
सबकी नजरों
में अस्वीकृति
परिहास
देख के...
सहम जाते हो क्या????
सिहर जाती हूँ मैं..
ये सोच के....
उस दिन....
पढाते पढाते
रजस्वला
किशोरियों को
पृथक किये जाने
से.....
उन पर होते
मानसिक आघात की
भर्त्सना की थी
तुमने....
कान से टकराई थीं...
हंसी में लिपटी..
कई आवाजें...
"दिल लड़की का है"
फिर एक दिन....
ज़मीन पर चलती
छिपकली देख
कूदते-चिल्लाते
रहे तुम....
सब टहाका
लगाते रहे...
शर्मिंदगी चेहरे पर
लटकी रही
तुम्हारे...
सोचती हूँ...
कुछ भी छिपाया
नहीं है
तुमने...
सच्चाई से
भयभीत क्यों है
समाज???
हर दिन
झंझोड़ते हो
समाज को
स्वीकृति हेतु...
abnormal से
normal होने
का मार्ग
कठीन है...
प्रचलित है की
तुम्हारा व्यवहार
प्रकृति के
विपरीत है...
perversion है
तुम WHO
और RED CROSS
की पंक्तियाँ
उद्ध्रीत करते
हो....
सब तुम्हारे
normal होने
के साक्ष्य...!!
अचंभित हूँ...
तुम्हारा यही
पहलू
तुम्हारा अस्तित्व
बना हुआ है...
चिकित्सक हो तुम
ये नगण्य है!!!
सुनो ना...
थकना मत....
मैं हूँ
तुम्हारे साथ...
स्वीकृत होने का पथ
लम्बा है..बहुत लम्बा.!!!
मेरे लीये..
तुम्हारे दोनों हाथ
थाम के कह पाना..
"मैंने तुम्हे स्वीकार
किया".....
चश्मे के अन्दर
झांकती आँखें तुम्हारी..
देखती है मुझे..
प्रकट होती है...
तुम्हे....मेरी
स्वीकृति!!!!
अधिकांश..
सबकी नजरों
में अस्वीकृति
परिहास
देख के...
सहम जाते हो क्या????
सिहर जाती हूँ मैं..
ये सोच के....
उस दिन....
पढाते पढाते
रजस्वला
किशोरियों को
पृथक किये जाने
से.....
उन पर होते
मानसिक आघात की
भर्त्सना की थी
तुमने....
कान से टकराई थीं...
हंसी में लिपटी..
कई आवाजें...
"दिल लड़की का है"
फिर एक दिन....
ज़मीन पर चलती
छिपकली देख
कूदते-चिल्लाते
रहे तुम....
सब टहाका
लगाते रहे...
शर्मिंदगी चेहरे पर
लटकी रही
तुम्हारे...
सोचती हूँ...
कुछ भी छिपाया
नहीं है
तुमने...
सच्चाई से
भयभीत क्यों है
समाज???
हर दिन
झंझोड़ते हो
समाज को
स्वीकृति हेतु...
abnormal से
normal होने
का मार्ग
कठीन है...
प्रचलित है की
तुम्हारा व्यवहार
प्रकृति के
विपरीत है...
perversion है
तुम WHO
और RED CROSS
की पंक्तियाँ
उद्ध्रीत करते
हो....
सब तुम्हारे
normal होने
के साक्ष्य...!!
अचंभित हूँ...
तुम्हारा यही
पहलू
तुम्हारा अस्तित्व
बना हुआ है...
चिकित्सक हो तुम
ये नगण्य है!!!
सुनो ना...
थकना मत....
मैं हूँ
तुम्हारे साथ...
स्वीकृत होने का पथ
लम्बा है..बहुत लम्बा.!!!
Tuesday, September 22, 2009
एक ख्याल
एक ख्याल....(ख्याल ही लिखा हर बार कुछ लिखा
काव्य नहीं होता....)
जब यहाँ कोई
बोलता नहीं है...
मेरे अन्दर,
एक शख्स...
यूँही बोलता रहता
है..उलझलूल
कुछ भी...
आजकल...(फुर्सत है न)
उन् बातों
को झाड़ पोंछ
के सामने
प्रस्तुत करता
है...
जिनकी अहमियत
(मेरे अनुसार)
वक्ती जज्बातों
का जमावाडा
था...
आये और
गए बातों
की फेहरिस्त
देना...
और याद दिलाना
उन् तन्हाई के
अफ़साने...
जिसमे गालिब
के ग़ज़लों
की दुनिया थी...
कुछ शामों
में....
तुम भी
आ जाती..
महफिल
का हल्का एहसास....
न उन् दिनों
की तमन्ना है अब
न चाहत...
दिनों
की अपनी
रसात्मकता है..
चलो न...
एक शाम..
गालिब को
फिर से
ढूंढ़ते हैं...
हम दोनों...
क्या ख्याल है????
काव्य नहीं होता....)
जब यहाँ कोई
बोलता नहीं है...
मेरे अन्दर,
एक शख्स...
यूँही बोलता रहता
है..उलझलूल
कुछ भी...
आजकल...(फुर्सत है न)
उन् बातों
को झाड़ पोंछ
के सामने
प्रस्तुत करता
है...
जिनकी अहमियत
(मेरे अनुसार)
वक्ती जज्बातों
का जमावाडा
था...
आये और
गए बातों
की फेहरिस्त
देना...
और याद दिलाना
उन् तन्हाई के
अफ़साने...
जिसमे गालिब
के ग़ज़लों
की दुनिया थी...
कुछ शामों
में....
तुम भी
आ जाती..
महफिल
का हल्का एहसास....
न उन् दिनों
की तमन्ना है अब
न चाहत...
दिनों
की अपनी
रसात्मकता है..
चलो न...
एक शाम..
गालिब को
फिर से
ढूंढ़ते हैं...
हम दोनों...
क्या ख्याल है????
Saturday, July 11, 2009
तेरी आवाज़
तेरी आवाज़
उतरी थी
जिस्म में...
धीरे धीरे...
बटोर के
रख दिया
उसे
ताक पर
कांच की
शीशी में...
यूँही...
एक दिन...
तराजू ला
के तौला
तेरी आवाज़
को..
मात्र
१५० ग्राम..
हलकी फुल्की
आवाज़....
उडी पुरवाई
के साथ..
तरंग ही तरंग...
तेरी आवाज़
खिलखिलाई....
गुलमोहर के
५० फूल
गौद में
बिखर गए...
सुनो इस बार,
स्पंज में
भिगो के देना
आवाज़...
निचोड़ निचोड़
के..फैलाऊँगी
खुशबू...
याद है....
मेरी आवाज़
का गोला
कर...
उछाला था
तेरी ओर...
हाथ से
छुट कर
नीचे गिरा
धपाक
तुने कहा था..
"तेरी आवाज़
भारी है बहुत.."
उतरी थी
जिस्म में...
धीरे धीरे...
बटोर के
रख दिया
उसे
ताक पर
कांच की
शीशी में...
यूँही...
एक दिन...
तराजू ला
के तौला
तेरी आवाज़
को..
मात्र
१५० ग्राम..
हलकी फुल्की
आवाज़....
उडी पुरवाई
के साथ..
तरंग ही तरंग...
तेरी आवाज़
खिलखिलाई....
गुलमोहर के
५० फूल
गौद में
बिखर गए...
सुनो इस बार,
स्पंज में
भिगो के देना
आवाज़...
निचोड़ निचोड़
के..फैलाऊँगी
खुशबू...
याद है....
मेरी आवाज़
का गोला
कर...
उछाला था
तेरी ओर...
हाथ से
छुट कर
नीचे गिरा
धपाक
तुने कहा था..
"तेरी आवाज़
भारी है बहुत.."
Friday, June 26, 2009
कृष्ण अर्जुन
"अंतहीन अंत:स्थल ज़ंग
का शंख बजा
कर बैठ गयी"
"बैठ गयी!!!
ना ना बैठना तो
पराजय की
ओर अग्रसित
प्रथम पद है....."
"प्रत्यक्ष खडा वो
मेरा अपना
उस स्थान को
जकडे है.....
ज्ञात
है उसे....
वो स्थान
मैंने उसे
क्षण भर को
दिया था..
अब मैं उसके
सामने हूँ..
वो नहीं जाता..
क्या करू मैं....
आह!असहाय हूँ
वो मेरा अपना...."
"अपना......कैसा
अपना...
हा!हा!
अवसर को उसने
पकडा.....आज
उस स्थान पर
है जो तुम्हारा है....
सुनो!!स्वयं का स्वयं
से लड़ाई है..
आगे बढो..
अवरोध है तो...
उसे हटा दो...
हटा दो..."
"ना नहीं
मुझसे ना होगा.."
"ना होगा!! कायर
सत्य को गले से
लगाने में हिचकिचाहट
कैसा???
जीवन के कड़वाहट
में ही मिठास है....
अपनी लड़ाई को
धूमिल ना करो...
आगे बढ़ना
ही है..."
"वैसे तुम कौन हो....
मेरे अंत:मन से बोले
जा रहे हो..."
"मैं.....मैं तुम्हारा कृष्ण
हूँ..और तुम हो..अर्जुन...
मैं जीवन पथ के महाभारत
में तुम्हारा मार्गदर्शक..."
का शंख बजा
कर बैठ गयी"
"बैठ गयी!!!
ना ना बैठना तो
पराजय की
ओर अग्रसित
प्रथम पद है....."
"प्रत्यक्ष खडा वो
मेरा अपना
उस स्थान को
जकडे है.....
ज्ञात
है उसे....
वो स्थान
मैंने उसे
क्षण भर को
दिया था..
अब मैं उसके
सामने हूँ..
वो नहीं जाता..
क्या करू मैं....
आह!असहाय हूँ
वो मेरा अपना...."
"अपना......कैसा
अपना...
हा!हा!
अवसर को उसने
पकडा.....आज
उस स्थान पर
है जो तुम्हारा है....
सुनो!!स्वयं का स्वयं
से लड़ाई है..
आगे बढो..
अवरोध है तो...
उसे हटा दो...
हटा दो..."
"ना नहीं
मुझसे ना होगा.."
"ना होगा!! कायर
सत्य को गले से
लगाने में हिचकिचाहट
कैसा???
जीवन के कड़वाहट
में ही मिठास है....
अपनी लड़ाई को
धूमिल ना करो...
आगे बढ़ना
ही है..."
"वैसे तुम कौन हो....
मेरे अंत:मन से बोले
जा रहे हो..."
"मैं.....मैं तुम्हारा कृष्ण
हूँ..और तुम हो..अर्जुन...
मैं जीवन पथ के महाभारत
में तुम्हारा मार्गदर्शक..."
Wednesday, May 6, 2009
खालीपन...
चाय की प्यालियों का खालीपन
क्षण भर को अखरा था.....
विचारों की तल्लीनता भंग
हुई थी....
"खोखला और खाली होना
क्या कोई अक्षम्य अपराध है???"
शुन्यता तो....
एकाकी की परिचायक है...
अंतर में जो घुटता है मेरे
शोर करता है....
तुम होती तो
मैं दिन-रात रो लेती..
और खाली हो जाती....
"रुदन की क्रिया भी..
तुम्हारे बिना अधूरी!!!!
क्यों-क्यों-क्यों अधूरी???"
भय-लहर मन के चट्टानों
को लहूलुहान किये है....
विचार घूम रहे है घुन-घुन
ऐंठ रहे है जिस्म को....
स्वीकृत करते ही....अनावृत हो जायेगा
एक फुंफकारता जेहरीला नाग....
"फिर क्या तुम लौट के आओगी..
मेरे पास????
शायद कभी नहीं"...
प्यालियों में चाय डाल दी है
अखरना कम हो गया है......
क्षण भर को अखरा था.....
विचारों की तल्लीनता भंग
हुई थी....
"खोखला और खाली होना
क्या कोई अक्षम्य अपराध है???"
शुन्यता तो....
एकाकी की परिचायक है...
अंतर में जो घुटता है मेरे
शोर करता है....
तुम होती तो
मैं दिन-रात रो लेती..
और खाली हो जाती....
"रुदन की क्रिया भी..
तुम्हारे बिना अधूरी!!!!
क्यों-क्यों-क्यों अधूरी???"
भय-लहर मन के चट्टानों
को लहूलुहान किये है....
विचार घूम रहे है घुन-घुन
ऐंठ रहे है जिस्म को....
स्वीकृत करते ही....अनावृत हो जायेगा
एक फुंफकारता जेहरीला नाग....
"फिर क्या तुम लौट के आओगी..
मेरे पास????
शायद कभी नहीं"...
प्यालियों में चाय डाल दी है
अखरना कम हो गया है......
Sunday, January 4, 2009
लाल चिडिया
"मेरा स्वागत यहीं था
काटे गए डोर
का अवशेष
अब भी बचा
है मुझमे...
यहाँ...
देखती थी
लाल चिडिया को
जब पंख फैलाती थी
उड़ नही पाती थी..
फड़फड़ाती थी..
बहुत देर तक...
चिड़ा उड़ता रहता था
अपने में मगन...
बिना उसपे ध्यान दिए....
अब तो..
पंख है उसके पास
ये भी उसे स्मरण नहीं.
मैं भी एक,
लाल चिड़िया...
तुम्हारे लिए
समर्पित होते
हुए भी...
अपने अंदर
झूलते रस्सी से
अटकी हूँ....
मन में कहीं
छोटी सी एक नदी
है...
उसमें रंग बिरंगी
मछलियाँ रहती
है.....
दिन में उन्हें दबा
देती हूँ..
पर रात मे...
मेरी स्वतंत्रता
में...
एक-एक मछली
उछलती है...
तैरती है...
ले जाती है मुझे
सफेद संगमरमर के
ताजमहल के पास
वहाँ अकेली होती
हूँ मैं...
दूर-दूर तक तुम
नहीं दिखते...
दिखती है वही
लाल चिड़िया
उड़ते हुए...
सवेरे मछलियाँ
छुप जाती हैं...
और मैं लाल चिड़िया
बैठी रह जाती हूँ
उदास..
चिर उदास..."
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