"अंतहीन अंत:स्थल ज़ंग
का शंख बजा
कर बैठ गयी"
"बैठ गयी!!!
ना ना बैठना तो
पराजय की
ओर अग्रसित
प्रथम पद है....."
"प्रत्यक्ष खडा वो
मेरा अपना
उस स्थान को
जकडे है.....
ज्ञात
है उसे....
वो स्थान
मैंने उसे
क्षण भर को
दिया था..
अब मैं उसके
सामने हूँ..
वो नहीं जाता..
क्या करू मैं....
आह!असहाय हूँ
वो मेरा अपना...."
"अपना......कैसा
अपना...
हा!हा!
अवसर को उसने
पकडा.....आज
उस स्थान पर
है जो तुम्हारा है....
सुनो!!स्वयं का स्वयं
से लड़ाई है..
आगे बढो..
अवरोध है तो...
उसे हटा दो...
हटा दो..."
"ना नहीं
मुझसे ना होगा.."
"ना होगा!! कायर
सत्य को गले से
लगाने में हिचकिचाहट
कैसा???
जीवन के कड़वाहट
में ही मिठास है....
अपनी लड़ाई को
धूमिल ना करो...
आगे बढ़ना
ही है..."
"वैसे तुम कौन हो....
मेरे अंत:मन से बोले
जा रहे हो..."
"मैं.....मैं तुम्हारा कृष्ण
हूँ..और तुम हो..अर्जुन...
मैं जीवन पथ के महाभारत
में तुम्हारा मार्गदर्शक..."
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3 comments:
seedhe aur saral shabdon mein acchi rachna...!!!
innovative....impressive as always...keep writing
शुरूआत में उलझ गई थी कविता, लेकिन अंत में दार्शनिक हो गई है। बेहतर प्रयास
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