नित नए सोच से घिरी हुई मैं
धब्बे विहीन कागज़ पर शब्दों
से एक समाज को रचती हूँ मैं....|
तुम्हारे लिए भले ही अग्ह्राय हो,
असहनीय हो,
पर हर एक रचना में
एक आत्मा उपस्थित है
शायद उसी आत्मा से
तुम्हे झंझोरती हूँ मैं....|
दुनिया के समक्ष मैं हृदयविहीं
वेदनाविहीं,भावनाशुन्य इंसान हूँ,
किस दिशा से भावनाओ का सागर,
उद्वेलित कर मुझे,फ़ैल जाता है
अधपके पन्नों पर,
उन पन्नों को फिर देर तक पकाती हूँ मैं....|
असमंजस कहूं या ऊहापोह कहूं
शब्दों के मायने समान हैं पर प्रभाव
अलग अलग,भावानाशुन्य मैं,पन्नों पर
भावनाओं का सागर उडेलती हूँ,
क्या मेरे दो रूप हैं?
हृदय की संप्रेषणता क्या दब जाती है?
या फिर दुनिया की नज़र काली है?
जो भी है,इतना तो तुम मान गए
हँसते हुए कहते हो-'अच्छी भली हो तुम'
सच में,
तुम्हारी आँखों की पुतली में
बैठी हुई मैं,दुनिया के
समक्ष फूल सी खिली हुई हूँ मैं...|
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